क्या ओवरसब्सक्रिप्शन देखकर आप भी IPO में लगाते हैं पैसा? जानिए इसके पीछे का सच!

क्या ओवरसब्सक्रिप्शन देखकर आप भी IPO में लगाते हैं पैसा? जानिए इसके पीछे का सच!



कंपनियों के लिए IPO (Initial Public Offering) एक बड़ा मील का पत्थर होता है, जो उन्हें प्राइवेट से पब्लिक बनने में मदद करता है। बड़े IPOs अक्सर सुर्खियों में रहते हैं, लेकिन स्मॉल एंड मीडियम एंटरप्राइज (SME) IPOs ने भी भारत में वित्तीय लोकतंत्र को बढ़ावा दिया है, जिससे छोटी कंपनियों की पूंजी बाजार तक पहुंच आसान हुई है। हालांकि, इस बढ़ती पहुंच के साथ एक बड़ी समस्या भी सामने आई है: 'आर्टिफिशियल ओवरसब्सक्रिप्शन'।


यह एक ऐसा खेल है, जहां उधार के पैसे से निवेश करने वाले रिटेल इन्वेस्टर्स, सट्टेबाजी का व्यवहार (Speculative Behavior) और कुछ मध्यस्थों (Intermediaries) की संदिग्ध प्रथाएं मिलकर IPO को असल से कहीं ज्यादा आकर्षक दिखाती हैं। इससे IPO का मूल मकसद (पूंजी जुटाना) पीछे छूट जाता है और ये सिर्फ सट्टेबाजी का जरिया बनकर रह जाते हैं।


उधार के पैसे से बढ़ती 'नकली' डिमांड

SME IPOs में बढ़ती दिलचस्पी की मुख्य वजह उनकी पहुंच (Accessibility) रही है। इनमें टिकट साइज़ छोटा होता है और जल्दी ग्रोथ की संभावना होती है, जिससे रिटेल इन्वेस्टर्स फटाफट मुनाफा कमाने की उम्मीद में निवेश करते हैं। लेकिन, यह आसान पहुंच अब 'दोधारी तलवार' बन गई है।


बहुत से रिटेल इन्वेस्टर्स उधार के पैसे या फिनटेक कंपनियों के ज़रिए मिलने वाले फाइनेंस का इस्तेमाल करके IPO में बड़ी मात्रा में पैसा लगाते हैं। इससे इश्यू की डिमांड 'आर्टिफिशियल' तरीके से बढ़ जाती है। आमतौर पर, ओवरसब्सक्रिप्शन को निवेशकों के आत्मविश्वास का संकेत माना जाता है, लेकिन अब इसका इस्तेमाल बाजार में नकली डिमांड पैदा करने के लिए हो रहा है।


मल्टीपल अकाउंट्स और मैनिपुलेशन का खेल

यह मैनिपुलेशन एक बड़ी चिंता का विषय है। लिस्टिंग गेन्स का फायदा उठाने के लिए, रिटेल इन्वेस्टर्स अक्सर कर्ज लेकर या थर्ड-पार्टी फंडिंग के ज़रिए बड़ी संख्या में शेयरों के लिए अप्लाई करते हैं, जो उनकी वास्तविक वित्तीय क्षमता से कहीं अधिक होता है। इतना ही नहीं, कई इन्वेस्टर्स अपने परिवार के सदस्यों के कई अकाउंट्स का इस्तेमाल करके भी एक ही IPO में कई एप्लिकेशन डालते हैं, जबकि ऐसा करना नियमों के खिलाफ है।


आम निवेशक कैसे फंसता है इस जाल में?

मर्चेंट बैंकर्स अक्सर इस 'आर्टिफिशियल ओवरसब्सक्रिप्शन' को IPO की सफलता के रूप में पेश करते हैं। इससे और ज़्यादा कंपनियां IPO लाने के लिए आकर्षित होती हैं। यह बाजार में डिमांड की एक ऐसी तस्वीर पेश करता है जो सच्चाई से कोसों दूर होती है। आम निवेशक, जो इस खेल को नहीं समझ पाते, वे ओवरसब्सक्रिप्शन के बड़े आंकड़ों को देखकर यह मान लेते हैं कि IPO में जबरदस्त दिलचस्पी है और यह एक सुरक्षित और मुनाफे वाला निवेश है।


लिस्टिंग के बाद 'क्रैश' और रिटेल इन्वेस्टर्स का फंसना

इस आर्टिफिशियल डिमांड के दूरगामी और नकारात्मक परिणाम होते हैं। लिस्टिंग के बाद, जो इन्वेस्टर्स कर्ज लेकर आए होते हैं, वे अपने शेयर तुरंत बेच देते हैं ताकि वे अपना कर्ज चुका सकें। इस भारी बिकवाली से शेयर की कीमतों में जबरदस्त उतार-चढ़ाव दिखता है। शुरुआती उछाल के बाद, कई SME IPOs में शेयरों की कीमतें कुछ ही हफ्तों बाद तेज़ी से गिर जाती हैं (क्रैश)। इससे वे आम रिटेल इन्वेस्टर्स फंस जाते हैं, जिन्होंने असली डिमांड समझकर पैसा लगाया होता है, और उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ता है।


क्या आप भी IPO के ओवरसब्सक्रिप्शन को देखकर निवेश का फैसला लेते हैं? इस खेल को समझना और विवेकपूर्ण निवेश करना ही असली समझदारी है।

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